राष्ट्रीय बालिका दिवस से पहले खेल के मैदान से आई अच्छी खबर ने सबका दिल खुश कर दिया। आस्ट्रिया के इन्सब्रूक में चल रहे मीटन कप इंटरनेशनल शूटिंग चैंपियनशिप में भारत की निशानेबाज अपूर्वी चंदेला ने स्वर्ण पदक पर निशाना साध कर दुनिया में देश का मान बढ़ाया है। मगर सात वर्ष पूर्व हैवानों के हत्थे चढ़ी निर्भया की आत्मा अब तक न्याय के लिए तड़प रही है। उसके गुनहगारों को अभी तक फांसी पर नहीं लटकाया जा सका है। हद यह है कि कुछ तथाकथित मानवतावादी निर्भया के परिजनों से गुनहगारों को माफ करने की अपील करने लगे हैं। बेशक भारत में बालिकायें हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हीं पर वह अनेक कुरीतियों की शिकार हैं। विडंबना यह है कि हजारों लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मार दिया जाता है। समाज के बड़े हिस्सों में बेटा-बेटी में भेद किया जाता है। हद यह है कि बेटी के पैदा होते ही उसकी परवरिश से ज्यादा उसकी शादी की चिंता सताने लगती है। महंगी होती शादियों के कारण हर पिता हर समय फिक्रमन्द नजर आता है।
संभवतः इन्हीं कुरीतियों की वजह से बड़ा तबका बेटी बचाओ अभियान से नहीं जुड़ पाया। जन जागरुकता के लंबे अभियानों के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या पर पूरी तरह रोक नहीं लग पाई। बड़ी विडंबना है कि नवरात्रि पर लोग बच्चियों को पूजते हैं और जब घर में लड़की का जन्म होता है तो लोग दुखी हो जाते हैं। कई प्रदेशों में तो बालिकाओं के जन्म को अभिशाप तक माना जाता है। सवाल यह है कि लोग क्यों भूल जाते हैं कि वह उस देश के नागरिक हैं जहां रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने देश की आन-बान में अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए थे। देश में लिंगानुपात लगातार घट रहा है। 2014-2016 में लिंगानुपात 898 था। 2015-17 में यह गिरकर 896 पर आ गया। 2011 की जनगणना में लिंगानुपात 940 था। सर्वे के मुताबिक 2012 से 2017 के दौरान देश के शहरी और ग्रामीण इलाकों में जन्मदर में क्रमश: 1.3 फीसदी और 0.6 फीसदी की गिरावट आई। इस अंतर को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है। इसलिए आज 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' को सिर्फ योजना नहीं, सामूहिक जिम्मेदारी समझने की जरूरत है। वैसे भी अच्छे और सभ्य समाज के निर्माण के लिए बेटियों को भी भयमुक्त वातावरण प्रदान करना परिवार, समाज और सरकार की जिम्मेदारी है।
लड़कियों इतना पढ़ाने और सशक्त बनाने की जरूरत है कि हम गर्व से कह सकें की देखो वह हमारी बेटी है। भारत में हर साल तीन से सात लाख कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं सामने आती हैं। यहां महिलाओं से पुरुषों की संख्या 5 करोड़ ज्यादा है। समाज में निरंतर परिवर्तन और कार्य बल में महिलाओं की बढ़ती भूमिका के बावजूद रुढ़िवादी लोग मानते हैं कि बेटा बुढ़ापे का सहारा होगा और बेटी हुई तो वह अपने घर चली जाएगी। बावजूद इसके बड़ा सच यह है कि लड़किया लड़कों से कमतर नहीं हैं। वह हर वो काम कर रही हैं जो लड़के करते हैं। झुंझुनू जिले की मोहना सिंह जैसी लड़कियां भी हैं जो लड़ाकू विमान उड़ाकर जिले का पूरे देश में मान बढ़ा रही हैं। वक्त आ गया है कि लोग राष्ट्रीय बालिका दिवस पर लड़का-लड़की में भेद न करने लिंग समानता के प्रयास करने की शपथ लें।
लड़कियों का कोख में कत्ल, बलात्कार और विरोध करने पर हत्या जैसी वारदात रूह कंपा देती हैं। सच यह है कि लड़कियां न तो घरों पर सुरक्षित हैं और न ही स्कूल और कार्यस्थलों पर। हर जगह भेड़िये घात लगाकर बैठे रहते हैं। ऐसे माहौल में बालिकायें कैसे आगे बढ़ पाएंगी। इससे अच्छा है कि हर साल बालिका दिवस मनाने की बजाय ऐसे वातावरण निर्मित करने की कोशिश की जाए जिससे बालिकायें खुद को महफूज समझ सकें। बालिका दिवस मनाने की सार्थकता तभी है जब उनके गुनहगारों को सजा देने में देरी न हो। कई राज्य सरकारों ने नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार करने वालों को फांसी देने का कानून बनाया है। ऐसा कानून सभी जगह लागू होना चाहिए। निर्भया प्रकरण का हश्र सबके सामने है। हाल ही में केंद्र ने अच्छी पहल की है। उसने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी है कि यह तय किया जाए कि डेथ वारंट जारी करने के बाद सात दिनों के भीतर ही दया याचिका दायर की जा सकती है। निर्भया प्रकरण में पटियाला हाउस कोर्ट ने दोषियों को 22 जनवरी को फांसी देने के लिए डेथ वारंट जारी किया था। दया याचिका दाखिल करने के बाद कोर्ट ने एक फरवरी के लिए नया डेथ वारंट जारी किया।
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