हम मध्य प्रदेश के कदम आत्मनिर्भरता की बजाय कर्ज पर निर्भरता की ओर लगातार बढ़ते देख रहे हैं. दो साल पहले तक जिस राज्य सरकार के खजाने में 7-8 हजार करोड़ रुपए हमेशा पड़े रहते थे, वह इस समय पैसे-पैसे को मोहताज है. मार्च 2020 में तत्कालीन कमलनाथ सरकार के अपदस्थ होने के बाद राज्य में बनी शिवराज सरकार अपने कार्यकाल के 7 महीनों में राज्य को चलाने के लिए 10 हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है. सरकार नवंबर-दिसंबर में 6 हजार करोड़ का और कर्ज लेने के लिए तैयार है. इस वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक राज्य पर कुल कर्ज 2 लाख 10 हजार 538 करोड़ रूपए हो चुका था, जो नए साल में वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक 2 लाख 40 हजार करोड़ तक पहुंच सकता है. हर साल 30 से 40 हजार करोड़ का कर्ज सरकार पर बढ़ता जा रहा है. इसी अनुपात में ब्याज की रकम भी सालाना करीब 3 से 4 हजार करोड़ रुपए बढ़ रही है. वर्ष 2019-20 के वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक राज्य सरकार कर्ज के मूल धन के रूप में 14 हजार 403 करोड़ रुपए और ब्याज के रूप में 14 हजार 803 करोड़ रूपए ब्याज के रूप में चुका रही थी, अब यह आंकड़ा और बढ़ जाएगा.
हालात कितने गंभीर
राज्य की बदहाल आर्थिक स्थिति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि सरकार को 27 जुलाई 2020 को पेश अपने बजट में 15 फीसदी की कटौती करना पड़ी. खासतौर पर जब देश के साथ समूचा मध्य प्रदेश भी कोरोना महामारी के संकट से जूझ रहा है, तब स्वास्थ्य से जुड़े विभागों, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग, चिकित्सा शिक्षा विभाग और आयुष विभाग के बजट में से कुल 403 करोड़ रुपए की कटौती कर दी गई. इस कटौती को स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने महापाप की संज्ञा दी और कहा कि इससे सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल होंगी और मरीजों की निजी अस्पतालों पर निर्भरता बढ़ जाएगी. शिक्षा सहित हर विभाग के बजट में कुछ न कुछ कटौती कर दी गई. और तो और गौरक्षा व गौ सेवा के नाम पर हमेशा से सियासत करने वाली सरकार ने गाय के चारे का बजट काटकर इतना कर दिया कि हर गाय के खाते में 1 रुपए 60 पैसे का चारा प्रतिदिन के मान से उसे मिल पाएगा. अब बताइए भला जहां आज 5 रुपए से कम में कोई चीज नहीं मिलती, वहां गाय का चारा क्या 1.60 रुपए में मिल सकता है? इस साल भी 15 हजार स्कूलों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है.
सरकार भी चिंतित
पिछले कुछ महीनों से हालात यह हैं कि सरकार के पास केवल वेतन देने लायक पैसा ही बच पाता है. हर महीने ओवर ड्राफ्ट की स्थिति से बचने के लिए सरकार को बाजार अथवा केन्द्र सरकार से लगातार पैसा लेना पड़ रहा है. जितने बुरे हाल अभी हैं, ऐसी स्थिति 2003 में दिग्विजय सिंह के कार्यकाल के अंतिम दिनों में पैदा हुई थी. इस डैमेज कंट्रोल के लिए मुख्यमंत्री लगातार खुद भी बैठकें ले रहे हैं. वित्त विभाग के सचिव विभिन्न विभागों के साथ बैठकें कर आने वाले खर्चों का अनुमान लगा रहे हैं. अभी तो कर्ज मिल रहा है, इसलिए फिलहाल कोई दिक्कत नहीं है, अन्यथा सरकार पर ओवर ड्राफ्ट भी हो सकता है. ओवर ड्राफ्ट वो स्थिति है, जिसमें सरकार के पास आय कम और खर्च ज्यादा हो जाता है. ओवर ड्राफ्ट का होना, मतलब प्रदेश और सरकार की साख पर बट्टा लगना माना जाता है. विभागों से अनावश्यक खर्चों पर रोक लगाने के लिए कहा गया है. मुख्यमंत्री कोरोना के कारण राज्य की बिगड़ी अर्थव्यवस्था से चिंतित आर्थिक विशेषज्ञों से मशविरा भी कर रहे हैं कि कैसे प्रदेश को कर्ज से बचाया और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है.
क्यों बिगड़े हालात
ऐसा नहीं है कि राज्य के हालात कोई अचानक बिगड़ना शुरू हुए, प्रदेश की आर्थिक स्थिति दो-तीन साल पहले से ही नाजुक हालातों में पहुंचना शुरू हो गई थी. राज्य में जब 2018 में चुनाव होने वाले थे, उससे पहले ही सियासी चौसर पर लोकलुभावन वादों और योजनाओं की घोषणाओं के पांसे फेंके जाने लगे थे. अधूरी योजनाओं को पूरा करने के नाम पर राज्य सरकार केन्द्र से ताबड़तोड़ कर्ज लेने लगी. कर्ज का पैसा स्कूल, शिक्षा, सड़क, पानी, बिजली, पुल, सिंचाई, रोजगार और तमाम अधोसंरचना के विकास के नाम पर लिया गया, लेकिन न अधूरी योजनाएं पूरी हो पा रही हैं, न नई योजनाओं की शुरुआत. सच कहें तो प्रदेश के अस्तित्व में आने के बाद से यहां योजनाओं के शिलान्यास के नाम पर जितने पत्थर गाड़े और नारियल फोड़े गए हैं, उन्हें गिना जाए, तो राज्य की आबादी भी कम पड़ जाएगी. कर्ज का पैसा जनता को राहत देने के नाम पर बांटते रहे. हालांकि मुसीबत के पलों में कुछ हद तक यह जरूरी भी है, लेकिन यह तभी फलीभूत हो सकता है, जब उसमें भ्रष्टाचार न हो. हम सबने देखा है कि किस तरह लाखों मृतकों के नाम पर किसानों की कर्जमाफी हो गई, जिन्होंने कभी 2 रुपये का कर्ज नहीं लिया, उनके नाम पर 2-2 लाख रुपये का कर्ज लिख दिया गया. कितने किसानों को खाद सब्सिडी देने के नाम पर करोड़ों का यूरिया घोटाला हो गया. इसी सरकार के कार्यकाल में हमने कृषि यंत्र घोटाला, बेरोजगारों को भत्ता घोटाला और कोरोना के शिकार लोगों को राशन घोटाले का शिकार होते देखा है. आखिर यह सब केन्द्र से मिली राहत या कर्ज से पैसों से ही तो हुआ. ये सब पैसे जनता को ही तो नए-पुराने टैक्स के रूप में भरने पड़ेंगे.
इसके अलावा दो साल से राज्य में व्यापक पैमाने पर प्याज का उत्पादन होने के कारण सरकार ने प्याज खरीद ली और भंडारण व बिक्री की सही व्यवस्था न होने से 600 करोड़ की प्याज सड़ गई. युवा इंजीनियरों को कांट्रेक्टर बनाने की योजना फ्लाप हो गई. युवा इंजीनियरों के प्रशिक्षण और स्टायपंड पर करोड़ों खर्च किए गए, लेकिन नतीजा अपेक्षित नहीं मिला. धान खरीदी और किसानों की कर्जमाफी पर लाखों करोड़ रुपए खर्च हो गए, योजनाएं भारी भ्रष्टाचार की शिकार हुईं. नर्मदा सेवा और आदि शंकराचार्य की यात्राओं में 100 करोड़ से ज्यादा खर्च हो गए. ये सब भी कुछ वजहें हैं, जिनके कारण राज्य सरकार पर बोझ बढ़ता गया.
महामारी से बढ़ा संकट
राज्य वित्त विभाग के सूत्रों के मुताबिक कोरोना महामारी के कारण बीते 6 महीनों में राज्य सरकार को जीएसटी से होने वाली आय में 44 से 50 फीसदी तक की गिरावट आई है. जीएसटी कलेक्शन के अलावा कोरोना महामारी से पेट्रोल-डीजल, आबकारी और खनिज विभाग की कर वसूली भी प्रभावित हुई. कोविड-19 संक्रमण की वजह से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुई हैं. न तो निर्माण कार्य गति पकड़ पा रहे हैं और न ही औद्योगिक गतिविधियां पटरी पर आ पाई हैं. इसी के कारण राज्य सरकार को अपना बजट आकार भी 28 हजार करोड़ घटाकर 2 लाख 5 हजार करोड़ से कुछ अधिक का करना पड़ा . कोरोना संकट की वजह से राज्य की अर्थव्यवस्था पर पड़े प्रभाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने राज्य को लगभग साढ़े 14 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त कर्ज लेने की सशर्त अनुमति दी है. इसे मिलाकर राज्य सरकार वर्ष 2020-21 में 40 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज ले सकती है. आर्थिक मामलों के जानकारों का अनुमान है कि कोरोना के बाद प्रदेश के कुल राजस्व में 30 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है, जो कुल राजस्व की करीब 26 हजार करोड़ रुपए होगी. यह अनुमान हालांकि पुराना है. वहीं केन्द्र से करीब 1 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की जरूरत है, अगर यह पैकेज नहीं मिला तो सरकार पूरी तरह से बाजार के भरोसे होगी और वित्तीय स्थिति को संभालना बेहद मुश्किल होगा.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
प्रख्यात अर्थशास्त्री, शिक्षाविद् प्रो. वीपी सिंह का मत है कि सरकार को लोकलुभावन घोषणाओं से बचना होगा. जनता खासतौर पर बेरोजगारों, किसानों, मजदूरों को संकट से उबारने के लिए जो जरूरी है, वो तो किया जाए, लेकिन इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार तथा उद्योगों से जुड़ी उन योजनाओं पर सरकार ध्यान दे, जिनका उत्पादकता बढ़ाने से सीधा संबंध है. दूसरी बड़ी बात ये है कि हर सरकार को संकटकालीन परिस्थितियों के लिए एक कोष बनाकर हमेशा रखना चाहिए, लेकिन यह काम नहीं किया गया. अगर बुजुर्गों की कुछ धन मुसीबत के समय के लिए संचित करने की नसीहत तो ध्यान में रखा जाता, तो कोरोना के इस विकट संकट के दौर में सरकार प्रदेश की जनता को बड़ी राहत मिलती. इन सवालों पर सीधा गौर किया जाना चाहिए कि मप्र को कम आय प्रति व्यक्ति वालें राज्यों की श्रेणी में क्यों रखा जाता है? गरीबी रेखा से जीवन यापन करने वालों की संख्या यूपी, बिहार के बाद मप्र में सबसे ज्यादा 31.65 फीसदी क्यों है? ये प्रतिशत कैसे घटे? राज्य में केवल 23 फीसदी घरों में ही नल से पानी क्यों आता है. सबसे ज्यादा बच्चों और महिलाओं की मृत्यु दर में क्यों है. इन सवालों के निदान की ओर सरकार ध्यान दे और कर्ज का पैसा संबंधित मदों में खर्च करें, न कि फिजूल की घोषणाओं पर.
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